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AWARD
SAURABH NAYYAR
REGISTRATION ID
C1252
YOUR FINAL SCORE IS IN BETWEEN
9.21 - 9.75
IFHINDIA CONGRATULATE YOU FOR BEING IN THE TOP 10 FINALISTS.
YOUR FINAL SCORE WILL BE ANNOUNCED IN THE AWARD CEREMONY.
1. THE TITLE WINNER SCORE MUST BE MORE THAN 9.70 WHO WILL BE WINNING 1,50,000/- CASH PRIZE & YOU MAY BE ONE OF THEM FOR SURE BECAUSE OUR FINAL WINNER IS IN BETWEEN THOSE TOP 10 FINALISTS INCLUDING YOU.
2. SINCE YOU ARE ONE OF THOSE TOP 10 FINALIST YOU WILL BE GETTING EXCLUSIVE GIFT COUPON WORTH 5000/- EACH
(Note : You must participate either in ONLINE EVENT or OFFLINE EVENT without fail to get your AWARD BENEFITS)
3. ALL TOP 10 FINALIST INCLUDING YOU MUST PARTICIPATE IN THE MEGA EVENT EITHER OFFLINE OR ONLINE BECAUSE EVEN YOU MAY BE THE ONE WHO WIN THE TITLE FOR SURE.
4. INCASE YOU ARE NOT WILLING TO PARTICIPATE IN THE MEGA EVENT/ AWARD CEREMONY EITHER OFFLINE OR ONLINE then your journey in the contest will end here. HOWEVER YOU WILL STILL RECEIVE THE BEST 25 WRITERS BENEFITS but you will not get any benefits for being in the TOP 10 incase you quit from the contest hereafter.
click on the below link to know more information about the FINAL ROUND
Written By
SAURABH NAYYAR
महानायक
लेखक - सौरभ नैय्यर
बचपन से मैं और मेरा सारा मोहल्ला उन्हीं की फिल्में देखते आया था, मुझे तो मुंह ज़बानी उनकी फिल्मों के डायलॉग रटे थे। एक -एक फिल्म 10 -10 , 15 - 15 बार देख रखी थी। हिंदी फिल्म जगत के महानायक--- एक एक संवाद जमा-जमा कर बोलते थे, एक-एक घूंसा जमा-जमा कर देते थे, और अगर फिल्म के किसी दृश्य में उनकी माँ का देहांत होता या पिता खलनायक के हाथों मारे जाते तो मेरा मन बड़ा बेचैन हो जाता, और जब तक कि महानायक अपने पिता या माँ की मौत का बदला खलनायक से ना ले लेते , तब तक मन को चैन ना मिलता।
और फिर बचपन से मैं..... मैं नहीं था , मेरे पसंदीदा हीरो को जो पसंद था, वही मेरी पसंद बन गया। जो हेयर स्टाइल उनकी थी, वही मेरी भी बन गई, कपड़े वही पहनने लगा जो किसी ना किसी फिल्म में उन्होंने पहन रखे थे। फिल्म में वो जैसा हँसते थे, मैं भी वैसा ही हंसने की कोशिश करने लगा... हालंकि मैं बड़ा अलग तरीके से हँसता था, पर अभ्यास कर-कर के मैंने उनके जैसे हंसना , उनके जैसे बात करना, उनके जैसे खाना-खाना , उनके जैसा चलना, सब सीख लिया। अब मोहल्ले वाले भी मुझमें मुझे नहीं देखते थे, बल्कि उस महानायक को देखते, जिसे उन्होंने भी फिल्मों में देख रखा था। मोहल्ले के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मुझे निमंत्रण दिया जाने लगा , जहाँ पर मुझे महानायक की किसी फिल्म का कोई संवाद , उन्ही की तरह बोलने की पेशकश रखी जाती, और फिर मेरे संवाद बोलते ही तालियों की गड़गड़ाहट होने लग जाती।
समय अपनी गति से आगे बढ़ता गया और मैं भी। मेरे महानायक के दाढ़ी - मूंछ के बाल सफ़ेद हो चुके थे, फिर मैं कैसे जवान रहता ? मैंने भी अपने बालों पर सफेदी की चमकार लगा ली। मेरी नौकरी लगी , एक बैंक में। मैं ख़ुशी से फूला नहीं समाया और घर जाकर सीधा माँ की गोद पे सिर रख दिया, क्योंकि किसी फिल्म में मेरे महानायक ने ऐसा ही किया था। गोद पे सिर रखकर मैंने कहा- ''मेरी नौकरी लग गई माँ, अब तुझे दूसरों के घर के बर्तन नहीं मांजने पड़ेंगे। '' मेरी माँ की आँखें भर आईं। हालांकि वो किसी के घर के बर्तन नहीं मांजती थी, पर इस वक़्त वो मेरी माँ नहीं थी, बल्कि उस महानायक की माँ थी, जिनकी फिल्में वो भी पिताजी के साथ बैठकर देखा करती थी और इसीलिए उन्होंने अपनी माँ वाली भूमिका पूरी तरह निभायी।
अब ये महानायक बैंक में केशियर बन चूका था। हर आने-जाने वाला ग्राहक मुझे देखता तो एक पल के लिए अपनी जगह पर रुक जाता , फिर मुस्कुराता और नमस्ते करके अपने काम में लग जाता। मैनेजर साहब और सहकर्मियों ने कभी मुझे नहीं टोका क्योंकि उन्हें तो ख़ुशी थी, कि उनके बैंक में महानायक खुद काम कर रहे हैं। पर पता नहीं उस सफ़ेद दाढ़ी - मूंछों से मेरे अंदर उम्र और बड़प्पन कैसे झिलमिलाने लगे ? मैनेजर साहब जो मुझ से 20 -25 साल बड़े थे, उन्हें मैं आकर गुड मॉर्निंग नहीं बोलता था बल्कि ''क्यों अग्रवाल जी , कैसा चल रहा है सब ?'' ऐसा कहकर सम्बोधित करता था, और वो भी मुस्कुराकर अभिवादन स्वीकार कर लेते थे।
इन सबके बीच माँ पिताजी की तबियत खराब हुई , मुझे लगा कोई लाइलाज बीमारी होगी, और मैं फूट-फूटकर रोने लगता मानो अनाथ होने ही वाला हूँ, पर ना कभी वो लम्बा बीमार हुए , ना कभी मैं अनाथ हुआ।
फिर एक दिन शादी के लिए लड़की वालों के घर जाना हुआ। लड़की के माता-पिता मुझसे मिलना चाह रहे थे , पर अब मैं , मैं नहीं था , मैं तो महानायक बन चुका था और वहां लड़की महानायक की जगह लड़का तलाश रही थी। लड़की के पिता ने सफ़ेद दाढ़ी -मूंछ देखकर, खिसयानी हँसते हुए पूछा - ''दिन रात ऐसे ही रहते हो बेटा ?'' मेरे अंदर के महानायक ने जो जवाब दिया, उससे लड़की के पिताजी को लगा वो लड़के से नहीं , बल्कि समधी से बात कर रहे हैं।
महानायक की नज़र लड़की पर रुकी , पर वो लड़की को नहीं देख रहा था, वो तो फिल्म की नायिका को देख रहा था। उसके साथ पेड़ के आगे - पीछे बगिया में जो गाने गाये जाने हैं उसके बारे में वो सोच चुका था। बातचीत का दौर थोड़ी देर चला, और अंत में उस लड़की ने महानायक से रिश्ता जोड़ने और अमुक नायिका बनने से इंकार कर दिया। वो जो थी , उसी में संतुष्ट थी। ये महानायक एक रात उदास रहा , कमरे की रौशनी कम करके , शराब पी , बड़बड़ाया, कुछ उदासी भरा गाना गुनगुनाया और फिर अगले दिन नया दिन नयी रात।
फिर एक दिन फिल्मों वाले असली महानायक को गंभीर बीमारी हो गई , अस्पताल में इलाज चलता रहा। पूरी दुनिया में प्रार्थना , दुआओं का सिलसिला चलता रहा, पर शायद महानायक को कहीं और अदाकारी करने का समय आ गया था। महानायक चल बसे।
"क्या ? ऐसा कैसे हो सकता है ? ऐसे कैसे वो महानायक चले जाएंगे ? अब उनके बिना मेरा क्या अस्तित्व ?"
पहली बार यह "मैं" सोच रहा था, ना कि मेरे अंदर का महानायक। पहली बार मैंने ख़ुद को, महानायक से अलग करके देखा, तो अंदर एक बहुत बड़ा ख़ालीपन दिखा, जहाँ मेरा बचपन , जवानी , मेरी हंसी , चाल ढाल सब छटपटा रहे थे। फिर मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगा , फूट-फूटकर बच्चों की तरह। पहली बार ये ''मैं '' रो रहा था, महानायक नहीं। काफी देर रो लेने के बाद अपने चेहरे को पानी से धोया। उस पानी से आंसू और चेहरे पर मौजूद महानायक के निशान पूरी तरह धुल चुके थे। ______________________________
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SAURABH NAYYAR
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